हवन-होम
और आहुति
हिन्दू-संस्कारों में हवन एक
महत्वपूर्ण प्रक्रिया मानी जाती है । उपनयन, गृह-निर्माण,
नूतन गृह-प्रवेश, विवाह आदि आदि शुभ कार्यों में कुछ अाहुति
नवीनता का प्रवेश एक जीवन में होता है । इसके लिये किसी भी
नये परिवेश के पदार्पण के पहले अपने गृह में शान्ति बनाये
रखने के लिये ग्रह-शान्ति की जाती है । जिससे घर में सुख
और शान्ति बनी रहे । भूमण्डल पर दिव्यांशु (सूर्य), हिमांशु
(चन्द्र) आदि आकाशीय ग्रहों से गर्मी-सर्दी, ऊँच-नीच जैसे
प्रभाव स्वाभाविक तौर पर पडते ही रहते हैं । इस भूमि पर रहने
वालों के घरों में गरम-ठण्डे, अच्छे-बुरे जैसे वातावरण में
समता बनाई रखी जा सके । इस उद्देश्य से ग्रह-शान्ति कराई
जाती है । यह एक हवनप्रक्रिया है , जिसका मानव जीवन में
बहुत बड़ा महत्व है । यज्ञ के नाम से वेद-काल से यह परम्परा
चली आ रही है । ग्रह-शान्ति की पूर्णता के लिये घृत-धारा-
होम किया जाता है । पूर्णाहुति का यह अविभाज्य अंग है ।
नभोमण्डल और भूमण्डल के बीच में हरदम यज्ञ होता रहता है ।
इससे प्राण का संचार सही ढंग से होता रहता है । आकाश से
ओझोन गेस और धरती से कार्बन डाइओक्साइड गेस की
गतिविधि से ओक्सीजन (प्राणवायु) की परिस्थिति से आज का
मानव परिचित है । यह भी एक प्रकार का यज्ञ ही है, जो
हरदम होता ही रहता है । वेद-विज्ञान का प्रारम्भ अग्नि के
ज्ञान से हुआ । ऋग्वेद का पहला मन्त्र "अग्निम् ईले पुरोहितम्
, यज्ञस्य देवम् .....” यज्ञदेव का भोजन सब से पहले
हितकारी तत्व" अग्नि " में घृत-धारा-होम है । यह एक
वैज्ञानिक विचार धारा है । ग्रह-शान्ति की पूर्णता के समय
अग्नि में दी जाने वाली आहुति के लिये ऋत्विजों के द्वारा
वेदमन्त्रों का उद्गीथ किया जाता है । इस समय बोले जाने वाले
मन्त्रों में से एक मन्त्र पर यहाँ वैज्ञानिक विचार प्रस्तुत हैः मन्त्रःःः
चित्तिं जुहोमि मनसा घृतेन ..विश्वकर्मणे....दाभ्यं
हविः(यजुर्वेद १७-७८) से शुरू करके" सप्त ते अग्ने समिधः;
सप्तजिव्हाः; सप्त ऋषयः; सप्त धाम प्रियाणि । सप्त होत्राः;
सप्तधा त्वा यजन्ति सप्त योनीरापृणस्व घृतेन स्वाहा (यजुर्वेद
१७-७९) इत्यादि...१० मन्त्र। हमें इसके प्रत्येक शब्द को
समझना है ः- “ मनसा चित्तिं जुहोमि..हविः" मैं मेरे मन से
घृतेन घी के द्वारा चित्ति = Thinking, wisdom,
intention, celebrity का विश्वकर्मणे समस्त सांसारिक
कार्यों के लिये हवन करता हूँ । घर-संसार में सुख और शान्ति
बनाये रखने का उद्देश्य है ।
अग्नि क्या है ? हवन जिन पदार्थों
घी आदि से किया जाता है वो समिधायें हैं । ये समिधा क्या है
?? इस प्रक्रिया का आविष्कार किसने किया ??? कितने तरीकों
से ये हवन किया जाता है ???? इसका परिणाम क्या होता है
???? विश्व में हर पल हर घढ़ी होते रहने वाले विनाशकारी
भावों का विनाश करने के लिये हवन (यज्ञ) किया जाता है ।
यज्ञदेव का दूत “अग्नि ” है; "अग्निं दूतं पुरो दधे" (यजु०२२-१७) ।
(१) "तेऽअग्ने सप्त जिव्हाः" इस अग्नि की
सात रसनायें हैं ः- १ः जब हवन किया जाता है तब अग्नि में
से काली काली धूवाँ निकलती है, यह पहली जीभ है ; यही धूम्र
जब और अधिक घन हो जाती है , वह कराली नाम की दूसरी
जीभ है । हवन पदार्थ का विलयन होने पर मनो वेग के जैसे
अग्नि को दूर-दूर से देखा जा सकता है, इसलिये तीसरा नाम
मनोजवा हुआ । संसार का कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं जिसे अग्नि
की लपट \रसना चाट नहीं सके, इससे इसका चौथा नाम
विश्वरुचि है । स्फुलिंगिनी इसका पाँचवां नाम, जिसकी
चिनगारियाँ हम सब देखते ही हैं । छठा नाम है धूम्रवर्णा,
जिसके आधार पर एक न्याय बना “यत्र यत्र धूमः तत्र तत्र
वन्हिः” जिसे साहचर्य भाव से धूँवे का अग्नि के साथ रहने के
कारण इसे 'व्याप्ति' की संज्ञा दी गई, राख का रंग ।
नीललोहिता इसकी सातवीं रसना है । जला देना और उजाला
कर देना अग्नि के कार्य हैं । प्रकाश के सात रंगों के मिश्रण में
अग्नि का यह वर्ण लाल और पीले रंग के मिलादेने से बन जाता
है, जो सुप्रसिद्ध है ॥
हवन की आवहनीय अग्नि में जिन समिधाओं से होम किया जाता है,
उनमें घी प्रधान है । गाय का घी और यव का पाण्डु रंग,
तिल का काला, पक्वान्न चावल का सफेद, कमल बीज का धूम्र,
सरसों का पीला, नौ ग्रहों की सूर्य के लिये आकडा, चन्द्र हेतु पलाश (ढाक),
मंगल को खैर, बुध को अपामार्ग(आँधीझाडा), गुरु हेतु पिप्पल,
शुक्र के लिये उदुम्बर (गूलर), शनि के लिये शमी, राहु हेतु दूब और केतु के
लिये कुश; इनमें समस्त रंगों का समावेश हो जाता है । मानव
का स्वभाव भी विविध रंगी होता है । भोजन के समय वैश्वानर
नामक अग्नि का आवाहन किया जाता है । 'अहं वैश्वानरो भूत्वा
प्राणिनां देहम् आश्रितः' श्रीमद् भगवद् गीता १५-१४ जिससे
आहार का परिणमन सही ढंग से होकर मनुष्य के देह में रस-
रक्त आदि शुक्र तक के सातों धातुओं का पोषण होता है । (२) "
सप्त ते अग्ने समिधः" ठीक इसी तरह वेद
कालीन यज्ञ परम्परा की सात समिधाएँ हैं जिनको होम देना है
उपर्युक्त अग्नि में । विश्व मंगल कामना से, अपने घर की
सुख-समृद्धि की कामना से, समाज में सद्भाव बनाये रखने के
लिये हमें आहुति देनी है ; सप्त समिधः इन सात समिधाओं की
*अहंकार ** मन और पाँचों ज्ञानेन्द्रियों के लोलुपभावी विषयों
की ताकि इनका मिथ्या योग नहीं हो । इससे पहला लाभ होता
है अपना उत्तम स्वास्थ्यलाभ, दूसरा घर का सुख, तीसरा
संसार में आपसी सहयोग और चौथा भूमण्डल से नभोमण्डल के
वातावरण की शुद्धि ः घृतधारा की आहुति को इसलिये प्रधान
बतलाया है कि यह गायमाता के खाद्य पदार्थों से गार्ह्यपत्य
अग्नि के द्वारा परिणमन होने में जो जो प्रक्रियायें होतीं हैं ,
मानव जीवन में वे सभी भोजन के रूपान्तरण से पाईं जातीं हैं ।
रस धातु से ओजस् और अहंकार तक । गीता हमें बतलाती है
ःविषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः(२-५९)। सही आहुति
यही है जो इस प्रक्रिया के आविष्कारक सप्त ऋषयः सात
ऋषियों ने (अंगिरस् , अत्रि, क्रतु, पुलस्त्य, पुलह, मरीचि और
वशिष्ठ ) एक साथ अग्नि देवता के सामने, आर्षीजगती छन्द
में, निषाद स्वर के साथ प्रस्तुत की । सप्तधाम प्रियाणि इनके
प्यारे सात धाम ःभूर्लोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, महर्लोक,
जनोलोक, तपोलोक औेर सत्य लोक रहे । हवन की आहुतियों
से क्रमशः इन धामों का प्रवास होता रहता है । इस हवन को
करने वाले सात होतृगण हैं , जिनमें यजमान के साथ अध्वर्यु,
उद्गाता, आचार्य और तीन ऋत्विजों का समावेश होता है ।
सप्तधा यजन्ति सात प्रकार सेःः शब्द, स्पर्श, तेजस् , रस,
गन्ध, भाव और प्रभाव के द्वारा सप्तयोनीः सात योनियाँ ः
मनुष्य, पशु, पक्षी, जलचर, कृमि, कीट, पतंग नामक योनियों
का पोषण कर आपृणस्व घृतेन समाज में सामरस्यता
harmony (Apollonian and Dionysian) दैवीभाव की
स्थापना होती है । स्वाहा को अग्निदेव की सहधर्मिणी बतलाया
गया है ।
हवन, होम और आहुति हर घर में हर दिन हर समय
करते रहने से गृह शान्ति और आकाशीय तत्व ग्रहों की शान्ति
के लिये घृतधारा आहुति ।
ये वेदकाल से चली आ रही परम्परा समाज में दैवी भावों को
बढा कर सामरस्यता की प्राप्ति के लिये पूर्णाहुति का बोध
कराती है ।
हिन्दू-संस्कारों में हवन एक
महत्वपूर्ण प्रक्रिया मानी जाती है । उपनयन, गृह-निर्माण,
नूतन गृह-प्रवेश, विवाह आदि आदि शुभ कार्यों में कुछ अाहुति
नवीनता का प्रवेश एक जीवन में होता है । इसके लिये किसी भी
नये परिवेश के पदार्पण के पहले अपने गृह में शान्ति बनाये
रखने के लिये ग्रह-शान्ति की जाती है । जिससे घर में सुख
और शान्ति बनी रहे । भूमण्डल पर दिव्यांशु (सूर्य), हिमांशु
(चन्द्र) आदि आकाशीय ग्रहों से गर्मी-सर्दी, ऊँच-नीच जैसे
प्रभाव स्वाभाविक तौर पर पडते ही रहते हैं । इस भूमि पर रहने
वालों के घरों में गरम-ठण्डे, अच्छे-बुरे जैसे वातावरण में
समता बनाई रखी जा सके । इस उद्देश्य से ग्रह-शान्ति कराई
जाती है । यह एक हवनप्रक्रिया है , जिसका मानव जीवन में
बहुत बड़ा महत्व है । यज्ञ के नाम से वेद-काल से यह परम्परा
चली आ रही है । ग्रह-शान्ति की पूर्णता के लिये घृत-धारा-
होम किया जाता है । पूर्णाहुति का यह अविभाज्य अंग है ।
नभोमण्डल और भूमण्डल के बीच में हरदम यज्ञ होता रहता है ।
इससे प्राण का संचार सही ढंग से होता रहता है । आकाश से
ओझोन गेस और धरती से कार्बन डाइओक्साइड गेस की
गतिविधि से ओक्सीजन (प्राणवायु) की परिस्थिति से आज का
मानव परिचित है । यह भी एक प्रकार का यज्ञ ही है, जो
हरदम होता ही रहता है । वेद-विज्ञान का प्रारम्भ अग्नि के
ज्ञान से हुआ । ऋग्वेद का पहला मन्त्र "अग्निम् ईले पुरोहितम्
, यज्ञस्य देवम् .....” यज्ञदेव का भोजन सब से पहले
हितकारी तत्व" अग्नि " में घृत-धारा-होम है । यह एक
वैज्ञानिक विचार धारा है । ग्रह-शान्ति की पूर्णता के समय
अग्नि में दी जाने वाली आहुति के लिये ऋत्विजों के द्वारा
वेदमन्त्रों का उद्गीथ किया जाता है । इस समय बोले जाने वाले
मन्त्रों में से एक मन्त्र पर यहाँ वैज्ञानिक विचार प्रस्तुत हैः मन्त्रःःः
चित्तिं जुहोमि मनसा घृतेन ..विश्वकर्मणे....दाभ्यं
हविः(यजुर्वेद १७-७८) से शुरू करके" सप्त ते अग्ने समिधः;
सप्तजिव्हाः; सप्त ऋषयः; सप्त धाम प्रियाणि । सप्त होत्राः;
सप्तधा त्वा यजन्ति सप्त योनीरापृणस्व घृतेन स्वाहा (यजुर्वेद
१७-७९) इत्यादि...१० मन्त्र। हमें इसके प्रत्येक शब्द को
समझना है ः- “ मनसा चित्तिं जुहोमि..हविः" मैं मेरे मन से
घृतेन घी के द्वारा चित्ति = Thinking, wisdom,
intention, celebrity का विश्वकर्मणे समस्त सांसारिक
कार्यों के लिये हवन करता हूँ । घर-संसार में सुख और शान्ति
बनाये रखने का उद्देश्य है ।
अग्नि क्या है ? हवन जिन पदार्थों
घी आदि से किया जाता है वो समिधायें हैं । ये समिधा क्या है
?? इस प्रक्रिया का आविष्कार किसने किया ??? कितने तरीकों
से ये हवन किया जाता है ???? इसका परिणाम क्या होता है
???? विश्व में हर पल हर घढ़ी होते रहने वाले विनाशकारी
भावों का विनाश करने के लिये हवन (यज्ञ) किया जाता है ।
यज्ञदेव का दूत “अग्नि ” है; "अग्निं दूतं पुरो दधे" (यजु०२२-१७) ।
(१) "तेऽअग्ने सप्त जिव्हाः" इस अग्नि की
सात रसनायें हैं ः- १ः जब हवन किया जाता है तब अग्नि में
से काली काली धूवाँ निकलती है, यह पहली जीभ है ; यही धूम्र
जब और अधिक घन हो जाती है , वह कराली नाम की दूसरी
जीभ है । हवन पदार्थ का विलयन होने पर मनो वेग के जैसे
अग्नि को दूर-दूर से देखा जा सकता है, इसलिये तीसरा नाम
मनोजवा हुआ । संसार का कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं जिसे अग्नि
की लपट \रसना चाट नहीं सके, इससे इसका चौथा नाम
विश्वरुचि है । स्फुलिंगिनी इसका पाँचवां नाम, जिसकी
चिनगारियाँ हम सब देखते ही हैं । छठा नाम है धूम्रवर्णा,
जिसके आधार पर एक न्याय बना “यत्र यत्र धूमः तत्र तत्र
वन्हिः” जिसे साहचर्य भाव से धूँवे का अग्नि के साथ रहने के
कारण इसे 'व्याप्ति' की संज्ञा दी गई, राख का रंग ।
नीललोहिता इसकी सातवीं रसना है । जला देना और उजाला
कर देना अग्नि के कार्य हैं । प्रकाश के सात रंगों के मिश्रण में
अग्नि का यह वर्ण लाल और पीले रंग के मिलादेने से बन जाता
है, जो सुप्रसिद्ध है ॥
हवन की आवहनीय अग्नि में जिन समिधाओं से होम किया जाता है,
उनमें घी प्रधान है । गाय का घी और यव का पाण्डु रंग,
तिल का काला, पक्वान्न चावल का सफेद, कमल बीज का धूम्र,
सरसों का पीला, नौ ग्रहों की सूर्य के लिये आकडा, चन्द्र हेतु पलाश (ढाक),
मंगल को खैर, बुध को अपामार्ग(आँधीझाडा), गुरु हेतु पिप्पल,
शुक्र के लिये उदुम्बर (गूलर), शनि के लिये शमी, राहु हेतु दूब और केतु के
लिये कुश; इनमें समस्त रंगों का समावेश हो जाता है । मानव
का स्वभाव भी विविध रंगी होता है । भोजन के समय वैश्वानर
नामक अग्नि का आवाहन किया जाता है । 'अहं वैश्वानरो भूत्वा
प्राणिनां देहम् आश्रितः' श्रीमद् भगवद् गीता १५-१४ जिससे
आहार का परिणमन सही ढंग से होकर मनुष्य के देह में रस-
रक्त आदि शुक्र तक के सातों धातुओं का पोषण होता है । (२) "
सप्त ते अग्ने समिधः" ठीक इसी तरह वेद
कालीन यज्ञ परम्परा की सात समिधाएँ हैं जिनको होम देना है
उपर्युक्त अग्नि में । विश्व मंगल कामना से, अपने घर की
सुख-समृद्धि की कामना से, समाज में सद्भाव बनाये रखने के
लिये हमें आहुति देनी है ; सप्त समिधः इन सात समिधाओं की
*अहंकार ** मन और पाँचों ज्ञानेन्द्रियों के लोलुपभावी विषयों
की ताकि इनका मिथ्या योग नहीं हो । इससे पहला लाभ होता
है अपना उत्तम स्वास्थ्यलाभ, दूसरा घर का सुख, तीसरा
संसार में आपसी सहयोग और चौथा भूमण्डल से नभोमण्डल के
वातावरण की शुद्धि ः घृतधारा की आहुति को इसलिये प्रधान
बतलाया है कि यह गायमाता के खाद्य पदार्थों से गार्ह्यपत्य
अग्नि के द्वारा परिणमन होने में जो जो प्रक्रियायें होतीं हैं ,
मानव जीवन में वे सभी भोजन के रूपान्तरण से पाईं जातीं हैं ।
रस धातु से ओजस् और अहंकार तक । गीता हमें बतलाती है
ःविषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः(२-५९)। सही आहुति
यही है जो इस प्रक्रिया के आविष्कारक सप्त ऋषयः सात
ऋषियों ने (अंगिरस् , अत्रि, क्रतु, पुलस्त्य, पुलह, मरीचि और
वशिष्ठ ) एक साथ अग्नि देवता के सामने, आर्षीजगती छन्द
में, निषाद स्वर के साथ प्रस्तुत की । सप्तधाम प्रियाणि इनके
प्यारे सात धाम ःभूर्लोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, महर्लोक,
जनोलोक, तपोलोक औेर सत्य लोक रहे । हवन की आहुतियों
से क्रमशः इन धामों का प्रवास होता रहता है । इस हवन को
करने वाले सात होतृगण हैं , जिनमें यजमान के साथ अध्वर्यु,
उद्गाता, आचार्य और तीन ऋत्विजों का समावेश होता है ।
सप्तधा यजन्ति सात प्रकार सेःः शब्द, स्पर्श, तेजस् , रस,
गन्ध, भाव और प्रभाव के द्वारा सप्तयोनीः सात योनियाँ ः
मनुष्य, पशु, पक्षी, जलचर, कृमि, कीट, पतंग नामक योनियों
का पोषण कर आपृणस्व घृतेन समाज में सामरस्यता
harmony (Apollonian and Dionysian) दैवीभाव की
स्थापना होती है । स्वाहा को अग्निदेव की सहधर्मिणी बतलाया
गया है ।
हवन, होम और आहुति हर घर में हर दिन हर समय
करते रहने से गृह शान्ति और आकाशीय तत्व ग्रहों की शान्ति
के लिये घृतधारा आहुति ।
ये वेदकाल से चली आ रही परम्परा समाज में दैवी भावों को
बढा कर सामरस्यता की प्राप्ति के लिये पूर्णाहुति का बोध
कराती है ।