मंगलवार, 1 जुलाई 2008

तन तम्बूरा काव्य

इस काव्य में मन को तार बना कर सुरुआत की गई परन्तु मन को पिघला कर मुरली ही नहीं मन्दिर भी बना दिया है । मनोदशा के अंतर्मुखी भाव को आत्मा तक पहुँचाने के लिए बहुत सरल तरीका समझाया गया है ।
तार को लगन की तीव्रता ने पिघला दिया । ईश्वर को पाने के लिए बाहर की तरफ नहीं , हमें अपने दिल और दिमाग को एक साथ जोड़ देना है । इसके लिए बुद्धि के सहारे की जरुरत नहीं है वरना अभिमान आ जाएगा । इसलिए मन को पिघला कर बुद्धि और अभिमान से पार कर चित्त की तरफ़ ले जाते हुए आत्मा में विलीन कर देना है। तब उस निराकार ॐ के दर्शन होते हैं । बाहरी रूप में दिखाई देनेवाले रत्नों में जब इश्वर दर्शन नहीं हो पाते तो आँखों से आसुओं की धार और दिल की पुकार राम और श्याम को पा लेनेकेलिये तड़फती रहती है। इस तड्फन में मन पिघलता है और प्राण तथा अपान के दो श्वास अपना मार्ग बदलकर मुरली के अनहद नाद में मनमंदिर में समा जातें हैं। महिम्नःस्तोत्र के पाठ से यह शिक्षा मिलती हैं ।



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